शुक्रवार, 22 मई 2015

ग़ज़ल (ये रिश्तें)








ग़ज़ल (ये रिश्तें)

ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटे 
बिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुम 

जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों  मीठी बात करता है
सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम 

हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में 
जीबन के सफ़र में जो उन्हें अपना बना लो तुम 

सियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता की
अपनी बात कैसे भी उनसे तुम बता लो तुम

अगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना है 
मदन अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुम


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (23-05-2015) को "एक चिराग मुहब्बत का" {चर्चा - 1984} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों मीठी बात करता है
    सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम

    हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में
    जीबन के सफ़र में जो उन्हें अपना बना लो तुम
    बढ़िया ग़ज़लसक्सेना जी

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