शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

ग़ज़ल (ख्बाब)







गज़ल  (ख्बाब)


ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं


कामचोरी, धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं


दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं


अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पौरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं


नाज हमको था कभी पर, आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सारे  ढह गए हैं 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

5 टिप्‍पणियां:

  1. नाज हमको था कभी पर आज सर झुकता शर्म से .....
    बहुत खुबसूरत रचना.....

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    1. प्रोत्साहन के लिए आपका हृदयसे आभार .सदैव मेरे ब्लौग आप का स्वागत है !

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  2. त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं

    सही कहा ....!!

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    1. प्रोत्साहन के लिए आपका हृदयसे आभार .सदैव मेरे ब्लौग आप का स्वागत है !

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  3. ऊपर से यहाँ तक पढ़ा। यह वाली ग़ज़ल सबसे अच्छी लगी।

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